Description
“आदम की उत्त्पत्ति से लेकर वर्तमान तक मानव ने कई युगों, लाखों बरसों और अनगनित पड़ावों को पार किया है। हर युग में मानव ने अलग-अलग अवतारी रूप में जन्म लिया है। कभी मानव तो कभी दानव, कभी दैत्य तो कभी देवता, कभी परोपकारी तो कभी अंहकारी, राक्षस, पिशाच, गुणी, अवगुणी, बलशाली, छलशाली, संत, असंत, ओजस्वी, यशस्वी या फिर तपस्वी।
धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य के जन्म को नहीं बल्कि कर्म को श्रेष्ठ माना गया है। कर्म ही मनुष्य की नीति और नियति का निर्धारण करते हैं। सही-गलत, स्वर्ग-नरक, धन-निर्धन, उन्नति-अवन्नति, परितोष या दंड, फूलों की सेज या फिर अग्निकुंड! सबके निर्धारण का आधार केवल कर्म ही हैं। इन सब से इतर एक बात अतिमहत्वपूर्ण है कि कर्म चाहे कुछ भी हो, कैसे भी हो। चाहे देवता के हो या दैत्य के! मृत्यु सबके लिए निश्चित है। ऐसा लगता है जैसे संपूर्ण जीवन का सार ही मृत्यु है और मृत्यु प्राप्ति के तरीकों के आधार पर ही धरती पर बैठा इंसान, दूसरे इंसान के कर्मों का अंदाज़ा सहज रूप से लगा लेता है।
सही मायनों में पृथ्वी पर इंसान ही ऐसा जीव है जिसका कोई एकरूप न तो निर्धारित है और न ही निश्चित। ये बहरूपिया है। इसका न कोई समान रूप है और न ही समान व्यवहार। मानव सर्वगुणी भी है और सर्वसंवेदी भी। इसके हज़ारों सैंकड़ों चेहरे हैं या यूं कहें कि एक चेहरे पर अनेकों चेहरे हैं तो भी कुछ गलत नहीं है। जिस प्रकार दशानन रावण के दस मुख या दस शीश थे और हर मुख या हर शीश का अपना एक महत्व था। ज्ञान, तप, अंहकार, बल, छल के प्रतीक वे सारे चेहरे केवल रावण के ही नहीं थे बल्कि हर मनुष्य के कई रूप और कई चेहरे आज भी विद्यमान हैं फिर भी जलाया आज भी केवल रावण को ही जाता है। रावण, जो गुणों से संपन्न होने के बावजूद भी केवल एक अवगुण के बल पर दोषी और घृणित करार दे दिया गया जबकि उसको जलाने वाले लोग सैंकड़ो अवगुणों में ख़ुद को लपेटकर भी रावण के पुतले में अग्निबाण छोड़ने से नहीं चूकते ये विडंबना से अधिक कुछ नहीं।”
पुस्तक की भूमिका से…